Motivational Poems in Hindi- आपके मन को उत्साहित करने वाली कविताएँ

प्रेरणादायक कविताएँ हमारे हृदय में उत्साह और प्रेरणा का संचार करती हैं। इस ब्लॉग में हम आपको हिंदी में लिखी गई कुछ महान लोगों की मोटिवेशनल कविताएँ प्रस्तुत कर रहे हैं। ये कविताएँ विशेष रूप से आपके जीवन में हताशा और निराशा के क्षणों में प्रेरणा देने का काम करेंगी। हर कविता में छिपा है आत्म-विश्वास और संघर्ष की कहानी, जो आपको अपने लक्ष्यों की ओर बढ़ने में मदद करेगी।

महान कवियों की ये प्रेरणादायक कविताएँ आपके जीवन में सकारात्मकता और ऊर्जा भरने का काम करेंगी। चाहे आप किसी चुनौती का सामना कर रहे हों या जीवन की कठिनाइयों से जूझ रहे हों, ये कविताएँ आपके मन को संबल देंगी और आपको आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करेंगी। इन्हें पढ़कर आप पाएंगे कि हर कठिनाई को पार कर सफलता की ऊँचाइयों तक पहुंचने का मार्ग स्पष्ट होता है। आइए, इन कविताओं को पढ़ें और अपने जीवन में सकारात्मक बदलाव लाएं।

मोटिवेशनल कविताएं क्या होती हैं?

मोटिवेशनल कविताएं ऐसी कविताएं होती हैं जो व्यक्ति को प्रेरित करने और उत्साहित करने का कार्य करती हैं। इन कविताओं में जीवन की चुनौतियों, संघर्ष और सफलता की कहानियों के माध्यम से आत्म-समर्पण और आत्म-विश्वास की भावना जागृत की जाती है। ये कविताएं सकारात्मक सोच को बढ़ावा देती हैं और जीवन में आत्मनिर्भरता और संघर्ष की महत्वपूर्णता को उजागर करती हैं। मोटिवेशनल कविताएं न केवल मानसिक शक्ति प्रदान करती हैं बल्कि व्यक्ति के भीतर छुपी हुई संभावनाओं को बाहर लाने में भी सहायक होती हैं। ये जीवन के प्रति उत्साह और आशा की किरण होती हैं।

हरिवंश राय बच्चन: Motivational Poems in Hindi 

हरिवंश राय बच्चन, हिंदी साहित्य के महान कवि और प्रेरणास्त्रोत, का जन्म 27 नवंबर 1907 को इलाहाबाद में हुआ था। उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में एम.ए. की डिग्री प्राप्त की और 1942 से 1952 तक विश्वविद्यालय में प्राध्यापक के रूप में कार्य किया। उनकी प्रेरणादायक कविताओं ने साहित्य जगत में एक नया मुकाम स्थापित किया और 1976 में उन्हें ‘पद्म भूषण’ से सम्मानित किया गया। उनकी कविताएं जीवन की चुनौतियों से संघर्ष करने और आशा की किरण बनाए रखने के लिए प्रेरित करती हैं। उनका निधन 2003 में मुंबई में हुआ, लेकिन उनकी कविताएं आज भी लोगों को प्रेरित करती हैं।

हरिवंश राय बच्चन की कविताएं

हरिवंश राय बच्चन हिंदी कविता के महान कवि हैं, जिन्होंने अपनी भावनात्मक और सशक्त अभिव्यक्ति से साहित्य को समृद्ध किया। उनकी कविताएं जीवन की जटिलताओं और मानव भावना की गहराइयों को छूने वाली होती हैं।

जो बीत गई -हरिवंश राय बच्चन 

जो बीत गई सो बात गई!
जीवन में एक सितारा था,
माना, वह बेहद प्यारा था,
वह डूब गया तो डूब गया;
अंबर के आनन को देखे,
कितने इसके तारे टूटे,
कितने छूट गए कहाँ मिले;
पर बोलो टूटे तारों पर
कब अंबर शोक मनाता है!
जो बीत गई सो बात गई!

जीवन में वह था एक कुसुम,
थे उस पर नित्य निछावर तुम,
वह सूख गया तो सूख गया;
मधुवन की छाती को देखो,
सूखी कितनी इसकी कलियाँ,
मुरझाई कितनी वल्लरियाँ,
जो मुरझाई फिर कहाँ खिलीं;
पर बोलो सूखे फूलों पर
कब मधुवन शोर मचाता है;
जो बीत गई सो बात गई!

जीवन में मधु का प्याला था,
तुमने तन-मन दे डाला था,
वह टूट गया तो टूट गया;
मदिरालय का आँगन देखो,
कितने प्याले हिल जाते हैं,
गिर मिट्टी में मिल जाते हैं,
जो गिरते हैं कब उठते हैं;
पर बोलो टूटे प्याले पर
कब मदिरालय पछताता है!
जो बीत गई सो बात गई!

मृदु मिट्टी के हैं बने हुए,
मधुघट फूटा ही करते हैं,
लघु जीवन लेकर आए हैं,
प्याले टूटा ही करते हैं,
फिर भी मदिरालय के अंदर
मधु के घट हैं, मधुप्याले हैं,
जो मादकता के मारे हैं,
वे मधु लूटा ही करते हैं;
वह कच्चा पीने वाला है
जिसकी ममता घट-प्यालों पर,
जो सच्चे मधु से जला हुआ
कब रोता है, चिल्लाता है!
जो बीत गई सो बात गई!

भावार्थ:

इस कविता में हरिवंश राय बच्चन ने जीवन की अस्थिरता और बदलाव को स्वीकारने की प्रेरणा दी है। कवि बताते हैं कि जो चीजें बीत गई हैं, उन्हें लेकर दुःख और पछतावा करना व्यर्थ है। जीवन में जो कुछ भी खो गया या समाप्त हो गया, उसकी ओर ध्यान देने के बजाय हमें आगे बढ़ना चाहिए। कवि सितारों, फूलों और प्यालों की मिसाल से यह सिखाते हैं कि वस्तुएं और अनुभव चाहे कितने भी महत्वपूर्ण क्यों न हों, वे बीतने के बाद स्थायी रूप से लौट नहीं सकते। इसलिए हमें अतीत की चिंता छोड़कर वर्तमान और भविष्य की ओर ध्यान देना चाहिए।

दिन जल्दी-जल्दी ढलता है -हरिवंश राय बच्चन 

हो जाए न पथ में रात कहीं,

मंज़िल भी तो है दूर नहीं—
यह सोच थका दिन का पंथी भी जल्दी-जल्दी चलता है!
दिन जल्दी-जल्दी ढलता है!

बच्चे प्रत्याशा में होंगे,
नीड़ों से झाँक रहे होंगे—
यह ध्यान परों में चिड़िया के भरता कितनी चंचलता है!
दिन जल्दी-जल्दी ढलता है!

मुझसे मिलने को कौन विकल?
मैं होऊँ किसके हित चंचल?
यह प्रश्न शिथिल करता पद को, भरता उर में विह्लता है!
दिन जल्दी-जल्दी ढलता है!

भावार्थ:

इस कविता में कवि ने समय की गति और व्यक्ति की निरंतर यात्रा को व्यक्त किया है। कवि का कहना है कि जैसे दिन तेजी से ढलता है, वैसे ही जीवन की राह पर यात्रा भी लगातार चलती रहती है। पथिक की यात्रा की कठिनाई और उसके मन की चंचलता का जिक्र करते हुए, कवि ने यह दर्शाया है कि जीवन में मंज़िल के करीब आने की उम्मीद और दिन की तेजी से ढलने की प्रतीक्षा एक समान होती है। बच्चों की प्रतीक्षा और चिड़िया की चंचलता को जोड़ते हुए, कवि ने समय के प्रति जागरूकता और निरंतरता की महत्ता को उजागर किया है।

हिम्मत करने वालों की कभी हार नही होती.. -हरिवंश राय बच्चन

लहरों से डरकर नौका पार नहीं होती
हिम्मत करने वालों की हार नहीं होती।

नन्ही चींटी जब दाना लेकर चलती है,
चढ़ती दीवारों पर सौ बार फिसलती है,
मन का विश्वास रगों में साहस भरता है,
चढ़कर गिरना, गिरकर चढ़ना न अखरता है,
आखिर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती।

डुबकियां सिंधु में गोताखोर लगाता है,
जा-जाकर खाली हाथ लौट आता है,
मिलते न सहेज के मोती पानी में,
बहता दूना उत्साह इसी हैरानी में,
मुठ्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती,
हिम्मत करने वालों की हार नहीं होती।

असफलता एक चुनौती है स्वीकार करो,
क्या कमी रह गयी, देखो और सुधार करो,
जब तक न सफल हो नींद चैन को त्यागो तुम,
संघर्षों का मैदान छोड़ मत भागो तुम,
कुछ किये बिना ही जय-जयकार नहीं होती,
हिम्मत करने वालों की हार नहीं होती।

भावार्थ:

इस कविता में कवि हरिवंश राय बच्चन ने साहस, perseverance, और मेहनत की महत्ता को दर्शाया है। वह बताते हैं कि लहरों और बाधाओं से डरकर कोई भी काम पूरा नहीं हो सकता। जैसे नन्ही चींटी और गोताखोर बार-बार प्रयास करके अंततः सफलता प्राप्त करते हैं, वैसे ही मनुष्य को भी असफलताओं से निराश नहीं होकर लगातार प्रयास करते रहना चाहिए। कविता का मुख्य संदेश है कि असफलता को चुनौती के रूप में स्वीकार करके और सुधार करते हुए निरंतर मेहनत करने से ही सफलता प्राप्त होती है। हिम्मत करने वालों की हार नहीं होती, बल्कि उनका संघर्ष और समर्पण अंततः विजय की ओर ले जाता है।

अग्निपथ- हरिवंश राय बच्चन

अग्निपथ! अग्निपथ! अग्निपथ!
वृक्ष हों भलें खड़े,
हों घने, हों बड़े,
एक पत्र-छाँह भी माँग मत, माँग मत, माँग मत!
अग्नि पथ! अग्नि पथ! अग्नि पथ!
तू न थकेगा कभी!
तू न थमेगा कभी!
तू न मुड़ेगा कभी!—कर शपथ, कर शपथ, कर शपथ!

अग्नि पथ! अग्नि पथ! अग्नि पथ!
यह महान दृश्य है—
चल रहा मनुष्य है
अश्रु-स्वेद-रक्त से लथपथ, लथपथ, लथपथ!
अग्नि पथ! अग्नि पथ! अग्नि पथ!

भावार्थ:

इस कविता में कवि हरिवंश राय बच्चन ने जीवन के संघर्षपूर्ण मार्ग की यात्रा को “अग्निपथ” के रूप में चित्रित किया है। कवि का संदेश है कि इस कठिन पथ पर चलने वाले व्यक्ति को किसी भी प्रकार की छाँह या सहूलियत की उम्मीद नहीं करनी चाहिए। अग्निपथ, अर्थात् जीवन का कठिन मार्ग, ऐसा है जहाँ थकावट, रुकावट या पलटे की कोई गुंजाइश नहीं है। यह एक कठिन और चुनौतीपूर्ण यात्रा है, जहाँ व्यक्ति को दृढ़ता और संकल्प के साथ चलना होता है। कविता का केंद्रीय विचार यह है कि कठिनाईयों के बावजूद, व्यक्ति को अपने लक्ष्य की ओर अडिग और स्थिर रहना चाहिए, और इस पथ पर चलने के लिए उसे पूरी प्रतिबद्धता के साथ अपनी यात्रा जारी रखनी चाहिए।

मैथिलीशरण गुप्त: Motivational poems in Hindi

मैथिलीशरण गुप्त (1886-1964) हिंदी साहित्य के प्रमुख कवि और आधुनिक हिंदी कविता के पितामह हैं। उनका जन्म 3 अगस्त 1886 को चिरगांव, झाँसी (अब उत्तर प्रदेश) में हुआ था। गुप्तजी की कविताएँ भारतीय संस्कृति, राष्ट्रभक्ति, और सामाजिक सुधारों का गहराई से चित्रण करती हैं। उन्होंने छायावाद युग में महत्वपूर्ण योगदान दिया और उनके साहित्य ने हिंदी कविता को नई दिशा दी।

उनकी प्रमुख रचनाओं में “साकेत”, “यशोधरा”, और “कर्पूरमणि” शामिल हैं। इन काव्यग्रंथों में भारतीय पौराणिक कथाएँ, बौद्ध धर्म, और संस्कृति के आदर्शों को सुन्दरता से प्रस्तुत किया गया है। मैथिलीशरण गुप्त की प्रेरणादायक कविताएँ जीवन में उत्साह और साहस बनाए रखने की प्रेरणा देती हैं, और उनके कार्य ने भारतीय समाज में आत्म-संयम और राष्ट्रीय गर्व की भावना को प्रबल किया।

मनुष्यता -मैथिलीशरण गुप्त

विचार लो कि मर्त्य हो न मृत्यु से डरो कभी,
मरो परन्तु यों मरो कि याद जो करे सभी।
हुई न यों सु–मृत्यु तो वृथा मरे, वृथा जिये,
मरा नहीं वहीं कि जो जिया न आपके लिए।
यही पशु–प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।

उसी उदार की कथा सरस्वती बखानवी,
उसी उदार से धरा कृतार्थ भाव मानती।
उसी उदार की सदा सजीव कीर्ति कूजती;
तथा उसी उदार को समस्त सृष्टि पूजती।
अखण्ड आत्मभाव जो असीम विश्व में भरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिये मरे।

सहानुभूति चाहिए, महाविभूति है वही;
वशीकृता सदैव है बनी हुई स्वयं मही।
विरूद्धवाद बुद्ध का दया–प्रवाह में बहा,
विनीत लोकवर्ग क्या न सामने झुका रहे?
अहा! वही उदार है परोपकार जो करे,
वहीं मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।

अनंत अंतरिक्ष में अनंत देव हैं खड़े,
समक्ष ही स्वबाहु जो बढ़ा रहे बड़े–बड़े।
परस्परावलम्ब से उठो तथा बढ़ो सभी,
अभी अमर्त्य–अंक में अपंक हो चढ़ो सभी।
रहो न यों कि एक से न काम और का सरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।

मनुष्य मात्र बन्धु है यही बड़ा विवेक है,
पुराणपुरूष स्वयंभू पिता प्रसिद्ध एक है।
फलानुसार कर्म के अवश्य बाह्य भेद है,
परंतु अंतरैक्य में प्रमाणभूत वेद हैं।
अनर्थ है कि बंधु हो न बंधु की व्यथा हरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।

चलो अभीष्ट मार्ग में सहर्ष खेलते हुए,
विपत्ति विप्र जो पड़ें उन्हें ढकेलते हुए।
घटे न हेल मेल हाँ, बढ़े न भिन्नता कभी,
अतर्क एक पंथ के सतर्क पंथ हों सभी।
तभी समर्थ भाव है कि तारता हुआ तरे
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।

रहो न भूल के कभी मदांध तुच्छ वित्त में
संत जन आपको करो न गर्व चित्त में
अन्त को है यहाँ त्रिलोकनाथ साथ में
दयालु दीन बन्धु के बड़े विशाल हाथ हैं
अतीव भाग्यहीन है अंधेर भाव जो भरे
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।

भावार्थ- कवि मैथिलीशरण गुप्त ने इस कविता के माध्यम से मानवता और परोपकार के महत्व को उजागर किया है। वे कहते हैं कि मृत्यु से डरना नहीं चाहिए, बल्कि हमें ऐसा जीवन जीना चाहिए कि हमारी मृत्यु के बाद भी लोग हमें याद रखें। एक व्यक्ति को केवल अपने स्वार्थ के लिए नहीं जीना चाहिए; असली मानवता वही है जब व्यक्ति अपने जीवन को दूसरों के हित में समर्पित करता है।

गुप्तजी ने यह भी कहा है कि सच्ची महानता और उदारता वह है जब व्यक्ति अपनी संपत्ति, शक्ति, और संसाधनों का उपयोग मानवता की भलाई के लिए करता है। यह उदारता सदा जीवित रहती है और समाज द्वारा सम्मानित की जाती है। कवि ने मानवता की सबसे बड़ी पहचान यह बताई है कि व्यक्ति परोपकार और सहानुभूति के माध्यम से समाज के लिए योगदान देता है। वे इस विचार को व्यक्त करते हैं कि जीवन का असली उद्देश्य केवल स्वयं के लिए नहीं, बल्कि सभी मानवों के लिए जीना और मरण है। इस प्रकार, कविता एक प्रेरणा है कि हम अपने जीवन को व्यापक मानवता के हित में लगाएँ और अपने कर्मों से समाज में एक स्थायी छाप छोड़ें।

नर हो, न निराश करो मन को -मैथिलीशरण गुप्त

नर हो, अपने मन को निराश मत करो,
कुछ काम करो, कुछ काम करो,
जग में रहकर अपना नाम बनाओ।
यह जीवन किस प्रयोजन के लिए है,
समझो कि यह व्यर्थ नहीं होना चाहिए,
कुछ ऐसा करो कि तन को लाभ हो,
नर हो, अपने मन को निराश मत करो।

सावधान रहो कि सुयोग न चला जाए,
अच्छे उपायों का कोई लाभ न हो,
समझो कि दुनिया सिर्फ एक सपना नहीं है,
अपना मार्ग खुद प्रशस्त करो,
अखिलेश्वर ही तुम्हारा सहारा है,
नर हो, अपने मन को निराश मत करो।

जब तुम्हें यहाँ सभी तत्व प्राप्त हैं,
तो उस तत्व को कहीं और कैसे पाएँगे,
स्वत्व की अमृत-रस की पीने का प्रयास करो,
उठो और अमरत्व का मार्ग प्रशस्त करो,
दुनिया के कानन में धरोहर बनो,
नर हो, अपने मन को निराश मत करो।

अपने गौरव की हमेशा याद रखो,
हम भी कुछ हैं, यह ध्यान रखो,
मरण के बाद भी गुंजित गान रहे,
चाहे सब कुछ चला जाए, लेकिन मान रहे,
अपने साधनों को कभी न छोड़ो,
नर हो, अपने मन को निराश मत करो।

प्रभु ने तुम्हें सब कुछ दिया है,
सभी वांछित वस्तुएँ प्रदान की हैं,
उनका उपयोग करो, कोई दोष नहीं है,
फिर किसका दोष कहोगे,
समझो कि कोई धन दुर्लभ नहीं है,
नर हो, अपने मन को निराश मत करो।

किस गौरव के तुम योग्य नहीं हो,
कौन तुम्हें सुख का भोग नहीं दे सकता,
तुम भी जगदीश्वर के घर के सदस्य हो,
फिर क्या दुर्लभ है उस परिवार में,
नर हो, अपने मन को निराश मत करो।

विधि की आलोचना करके खेद न करो,
अपना लक्ष्य निरंतर भेद करो,
उद्यम ही विधि है जो सुख की निधि मिलती है,
समझो निष्क्रिय जीवन को धिक्कार है,
नर हो, अपने मन को निराश मत करो,
कुछ काम करो, कुछ काम करो।

भावार्थ:

इस कविता में कवि ने जीवन के उद्देश्य और निराशा पर काबू पाने का संदेश दिया है। वे कहते हैं कि जीवन को केवल उम्मीद और काम करने की प्रेरणा से ही सार्थक बनाया जा सकता है। मनुष्य को अपने प्रयासों में निरंतरता और दृढ़ता रखनी चाहिए, और अपने जीवन को किसी भी कीमत पर व्यर्थ नहीं जाने देना चाहिए।

कवि ने यह भी कहा है कि जो कुछ भी हमें प्राप्त है, उसका उपयोग करके हमें अपने जीवन को गौरवमयी बनाना चाहिए और किसी भी परिस्थिति में निराश नहीं होना चाहिए। उन्होंने बताया है कि हर व्यक्ति को अपने लक्ष्य की ओर निरंतर प्रयास करते रहना चाहिए और जीवन की कठिनाइयों का सामना धैर्य और साहस के साथ करना चाहिए।

प्रतिशोध -मैथिलीशरण गुप्त

नबी के पास जाकर प्रतिशोध की माँग की।
क्या मुझे आज्ञा मिल सकती है प्रतिशोध लेने की?
क्या मैं सच में निःशक्त और अज्ञानी हूँ?

नबी ने उसे शांति से उत्तर दिया,
“मुझे अपने स्वजन पर दया है,
वैर की भावना से भरे मत रहो,
अपने आप को घात और प्रतिशोध से दूर रखो।
मैं तुम्हें क्षमा करने की सलाह दूंगा,
तुम्हारे शील का गवाह रहूंगा।
बंधु, दिखाओ एक नई दिशा,
दया और अनुशासन से दूसरों को प्रभावित करो।
यही तुम्हारा श्रेष्ठ मार्ग होगा।”

भावार्थ:

इस कविता में कवि मैथिलीशरण गुप्त ने प्रतिशोध की भावना और क्षमा की शक्ति पर ध्यान केंद्रित किया है। किसी व्यक्ति ने नबी से प्रतिशोध की अनुमति माँगी, लेकिन नबी ने उसे शांति और क्षमा का मार्ग अपनाने की सलाह दी। उन्होंने कहा कि प्रतिशोध केवल और अधिक घात और दुर्भाग्य लाएगा, जबकि क्षमा और दया से उच्च मानवीय मूल्य स्थापित होते हैं।

नबी ने उसे समझाया कि वास्तविक वीरता और ताकत प्रतिशोध में नहीं, बल्कि क्षमा और शील में है। इस प्रकार, कवि ने यह संदेश दिया है कि जीवन में संतुलन और शांति बनाए रखने के लिए हमें प्रतिशोध की भावना को नियंत्रित करना चाहिए और दूसरों के प्रति दया और क्षमा का व्यवहार अपनाना चाहिए।

अटल बिहारी वाजपेयी: Motivational Poems in Hindi

अटल बिहारी वाजपेयी एक प्रमुख भारतीय राजनीतिज्ञ, कवि और लेखक थे, जिनकी प्रेरणादायक कविताएं उनके जीवन दर्शन और राजनीतिक विचारधारा को दर्शाती हैं। वे 25 दिसंबर 1924 को ग्वालियर, मध्य प्रदेश में जन्मे थे और भारतीय जनता पार्टी (भा.ज.पा.) के एक महत्वपूर्ण नेता रहे। वाजपेयी जी ने भारतीय राजनीति में कई महत्वपूर्ण पदों पर कार्य किया, जिसमें भारत के प्रधानमंत्री के रूप में उनका कार्यकाल विशेष रूप से उल्लेखनीय है।

उनकी कविताएं अक्सर देशभक्ति, आदर्श, और समाज की भलाई के संदेश देती हैं। उनकी लेखनी में जीवन की कठिनाइयों का सामना करने की प्रेरणा और देश के प्रति एक मजबूत भावना झलकती है। वाजपेयी जी की कविताओं में आशा, साहस, और मानवता के मूल्यों की महत्वपूर्ण बातें होती हैं, जो उन्हें एक प्रेरणास्त्रोत बनाती हैं।

उनकी एक प्रसिद्ध प्रेरणादायक कविता है “एक जीवन को ठीक से जीना है”, जिसमें उन्होंने जीवन के प्रति एक सकारात्मक दृष्टिकोण और समर्पण का संदेश दिया है। इस कविता में उन्होंने जीवन की चुनौतियों का सामना साहस और संकल्प के साथ करने की बात की है।

आओ फिर से दिया जलाएँ -अटल बिहारी वाजपेयी

आओ, हम फिर से दीप जलाएँ,
भरी दुपहरी में अंधकार फैला है,
सूरज की किरणें भी कमजोर पड़ गई हैं।
आओ, अपने अंतर की गहराई से प्रेम को निकालें,
बुझी हुई बाती को फिर से जलाएँ।

हमने पड़ाव को ही मंजिल मान लिया,
लक्ष्य हमारी आँखों से ओझल हो गया है।
वर्तमान के मोहजाल में फँसकर,
भविष्य को न भूलें,
आओ, फिर से दीप जलाएँ।

यज्ञ अधूरा है, आहुति बाकी है,
अपने ही विघ्नों ने हमें घेर लिया है।
अंतिम विजय प्राप्त करने के लिए,
नव दधीचि की तरह अपनी हड्डियाँ भस्म कर दें,
आओ, फिर से दीप जलाएँ।

भावार्थ:

इस कविता में कवि अटल बिहारी वाजपेयी ने आशा और पुनर्निर्माण के महत्व पर बल दिया है। दीप जलाने का प्रतीकात्मक अर्थ है – अंधकार को दूर करने और एक नई शुरुआत करने का संकल्प। कविता का संदेश है कि जीवन की कठिनाइयों और विघ्नों के बावजूद हमें अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते रहना चाहिए और अपनी आंतरिक ऊर्जा और प्रेम को पुनः सक्रिय करना चाहिए।

भविष्य की दिशा को फिर से स्पष्ट करने और अदृश्य हो चुके लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए कवि ने आत्मसंदेह और विघ्नों को पार करने की आवश्यकता को दर्शाया है। अंतिम विजय और सफलता के लिए पूरी मेहनत और समर्पण की आवश्यकता है, जैसे नव दधीचि ने अपनी हड्डियाँ यज्ञ के लिए अर्पित की थीं। यह कविता प्रेरणा और धैर्य का संदेश देती है, ताकि हम अपने जीवन में नकारात्मकता को पार कर सकें और पुनः उज्जवल भविष्य की ओर बढ़ सकें।

क़दम मिला कर चलना होगा -अटल बिहारी वाजपेयी

बाधाएँ चाहे जैसी भी हों,
प्रलय की घनी घटाएं घेरें,
पांवों के नीचे अंगारे हों,
सिर पर ज्वालाएं बरसें,

फिर भी हमें अपने हाथों से हंसते हुए,
आग में जलना होगा,
कदम से कदम मिलाकर चलना होगा।

हास्य और शोक के बीच, तूफानों और बलिदानों में,
उद्यानों और वीरानों में, अपमान और सम्मान में,

उन्नत मस्तक और उभरा सीना लेकर,
पीड़ाओं में जीना होगा,
कदम से कदम मिलाकर चलना होगा।

उजाले और अंधेरे में,
कल के कछार और धार में,
घोर घृणा और प्यारे में,
क्षणिक जीत और दीर्घ हार में,

जीवन के हजारों आकर्षणों को,
नष्ट करना होगा,
कदम से कदम मिलाकर चलना होगा।

अमर ध्येय के पथ पर,
प्रगति की अनंत यात्रा में,
संसार की हर स्थिति में,
सफलता और असफलता को समान मानकर,

सब कुछ देकर कुछ न मांगते हुए,
पावस की तरह ढलना होगा,
कदम से कदम मिलाकर चलना होगा।

कुश और कांटों से भरे जीवन में,
प्रखर प्रेम से वंचित यौवन में,
नीरवता से भरे मधुवन में,
पर-हित के लिए अपना तन-मन अर्पित करते हुए,

जीवन की हर आहुति में,
जलना और गलना होगा,
कदम से कदम मिलाकर चलना होगा।

भावार्थ:

यह कविता संघर्ष और धैर्य की प्रेरणादायक अपील है। कवि ने बताया है कि जीवन में आने वाली बाधाओं, कठिनाइयों और असफलताओं को सहन करते हुए भी हमें अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते रहना चाहिए। चाहे परिस्थितियाँ कितनी भी कठिन क्यों न हों—जैसे अंगारे, ज्वालाएं, या घनी घटाएं—हमें मुस्कुराते हुए संघर्ष करते रहना होगा।

कवि ने यह भी कहा है कि हमें जीवन की हर स्थिति में, चाहे वह अपमान या सम्मान हो, हार या जीत हो, एकाग्रता और दृढ़ता के साथ चलना होगा। हमें अपने ध्येय को ध्यान में रखते हुए, किसी भी प्रकार की कठिनाई को पार करने के लिए तैयार रहना होगा।

जीवन की चुनौतीपूर्ण स्थितियों में, जैसे कि कांटों से भरे मार्ग या नीरवता में, हमें अपने उद्देश्य के लिए पूर्ण समर्पण और बलिदान के साथ आगे बढ़ते रहना चाहिए। यह कविता प्रेरित करती है कि हर कठिनाई को स्वीकार करते हुए, अपने पथ पर चलते रहना और संघर्ष को एक आवश्यक प्रक्रिया मानना चाहिए।

प्रदीप: Motivational Poems in Hindi

प्रदीप का जन्म और प्रारंभिक जीवन भारत के विभिन्न हिस्सों में बीता। वे अपनी कविताओं के लिए प्रसिद्ध हैं, जिनमें जीवन के विभिन्न संघर्षों और आशाओं की कथा होती है। उनकी रचनाएँ हिंदी साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं और उनकी कविताएँ प्रेरणा और सकारात्मकता का संदेश देती हैं। प्रदीप की कविताओं में जीवन की कठिनाइयों को पार करने की भावना और व्यक्तिगत संघर्ष की कहानियाँ अक्सर देखने को मिलती हैं। उनके लेखन में एक अद्वितीय शैली और भावनात्मक गहराई होती है, जो पाठकों को उनकी ओर आकर्षित करती है।

हम लाये हैं तूफ़ान से किश्ती निकाल के..  -प्रदीप 

हम लाए हैं तूफ़ान से किश्ती निकाल के,
दुश्मन की चाल के सारे पासे पलट दिए,
भारत के सम्मान के अक्षर पलट दिए,
हर बला को टालते हुए मंजिल पर पहुंचे,
सदियों के बाद फिर गुलाल के बादल उड़े,
हम लाए हैं तूफ़ान से किश्ती निकाल के,
इस देश को रखना मेरे बच्चों संभाल के।

तुम ही हो भविष्य, मेरे विशाल भारत के,
इस देश को संभालना, मेरे बच्चों, संभाल के,
देखो कहीं यह बगीचा न बरबाद हो जाए,
बापू ने इसे हृदय के खून से सींचा है,
शहीदों ने इसे अपने रक्त से बचाया है,
इस देश को संभालना, मेरे बच्चों, संभाल के।

दुनिया की चालाकियों से बचना,
मंजिल तुम्हारी दूर है, रास्ता लंबा है,
धोखे से भटको मत,
इस देश को संभालना, मेरे बच्चों, संभाल के।

एटम बमों की ताकत पर यह दुनिया टिकी है,
बारूद के ढेर पर बैठी है,
हर कदम सोच-समझ कर उठाना,
इस देश को संभालना, मेरे बच्चों, संभाल के।

आराम की चक्की में न उलझो,
सपनों की दुनिया में खोकर न रहो,
अब समय आ गया है,
उठो, छलांग मारो और आकाश को छुओ,
तिरंगा गगन में लहरा दो,
इस देश को संभालना, मेरे बच्चों, संभाल के।

भावार्थ:

इस कविता में कवि प्रदीप ने स्वतंत्रता और संघर्ष के संदर्भ में एक प्रेरणादायक संदेश दिया है। उन्होंने यह दर्शाया है कि कैसे भारत ने कठिनाइयों और दुश्मनों से लड़कर स्वतंत्रता प्राप्त की और एक नई दिशा में अग्रसर हुआ। कवि ने युवाओं को संबोधित करते हुए उन्हें देश की जिम्मेदारियों को समझने और निभाने की प्रेरणा दी है। उन्होंने बताया है कि देश की सुरक्षा और प्रगति की जिम्मेदारी अब उनकी है, और उन्हें इस जिम्मेदारी को पूरी सजगता और समर्पण के साथ निभाना चाहिए। कवि ने उन उम्मीदों और बलिदानों को याद करने का आग्रह किया है, जो स्वतंत्रता के संघर्ष में दिए गए थे, और युवाओं को प्रेरित किया है कि वे अपनी मेहनत और समर्पण से देश को नई ऊंचाइयों पर ले जाएं।

रवीन्द्रनाथ टैगोर: Motivational Poems in Hindi

रवींद्रनाथ टैगोर (1861-1941) भारतीय साहित्य के महान कवि, लेखक, और दार्शनिक थे। उनका जन्म कोलकाता में एक साहित्यिक परिवार में हुआ था। टैगोर ने कविताओं, नाटकों, कहानियों, और उपन्यासों के माध्यम से भारतीय साहित्य को समृद्ध किया। उनकी काव्य-रचना “गीतांजलि” के लिए उन्हें 1913 में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया, जिससे वे यह पुरस्कार प्राप्त करने वाले पहले गैर-यूरोपीय लेखक बने। टैगोर ने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में भी सक्रिय भाग लिया और औपनिवेशिक शासन के खिलाफ अपनी आवाज उठाई। उनकी रचनाओं में गहराई और मानवता की भावना स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। उनका योगदान न केवल साहित्यिक बल्कि सांस्कृतिक और सामाजिक क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण रहा है। रवींद्रनाथ टैगोर की मृत्यु 1941 में हुई, लेकिन उनकी रचनाएँ आज भी लोगों को प्रेरित करती हैं।

मन जहां डर से परे है -रवीन्द्रनाथ टैगोर

“जहां मन डर से परे है और सिर ऊँचा है;
जहां ज्ञान स्वतंत्र है और दुनिया संकीर्ण घरेलू दीवारों से विभाजित नहीं है;
जहां शब्द सत्य की गहराई से निकलते हैं, और थकी हुई कोशिशें
त्रुटिहीनता की खोज में लगी रहती हैं;
जहां कारण की स्पष्ट धारा है
जो सुनसान और मृत आदतों के रेगिस्तान में अपना रास्ता नहीं खोती है;
जहां मन सदा विस्तृत विचार और सक्रियता में अग्रसर रहता है,
और आजादी के स्वर्ग तक पहुंचता है;
हे परमेश्वर,
मेरे देश को जागृत करो।”

भावार्थ:

रवींद्रनाथ टैगोर की यह कविता देश की महानता और आत्मनिर्भरता की कामना करती है। कवि एक ऐसे समाज की कल्पना करता है जहां डर और संकोच का कोई स्थान न हो। वह चाहता है कि ज्ञान स्वतंत्र और स्पष्ट हो, न कि सीमित और संकीर्ण। कविता में ज्ञान और सत्य की खोज की महत्वपूर्णता को दर्शाया गया है, साथ ही यह भी कि समाज में कोई भी त्रुटि न हो और सोचने की धारा कभी न रुके। टैगोर का आग्रह है कि देश एक ऐसे ऊंचे आदर्श को अपनाए, जहां विचार और क्रियाएं हमेशा व्यापक और सक्रिय हों। अंत में, कवि भगवान से प्रार्थना करता है कि वह देश को जागृत करें और उसे स्वतंत्रता के स्वर्ग की ओर ले जाएं। यह कविता भारत की स्वतंत्रता और प्रगति के प्रति टैगोर की गहरी आशा और अपेक्षाओं को व्यक्त करती है।

Makhanlal Chaturvedi (माखनलाल चतुर्वेदी)

माखनलाल चतुर्वेदी (1889-1968) हिंदी साहित्य के प्रमुख कवि, निबंधकार और पत्रकार थे। उनका जन्म 4 अप्रैल 1889 को मध्य प्रदेश के बाबई गांव में हुआ था। चतुर्वेदी ने अपने साहित्यिक करियर की शुरुआत कविता और निबंध लेखन से की, और वे विशेष रूप से अपने प्रेरणादायक और राष्ट्रीयता को प्रेरित करने वाले लेखन के लिए प्रसिद्ध हुए।

उन्होंने हिंदी साहित्य में एक नई दिशा दी और स्वतंत्रता संग्राम में भी सक्रिय भाग लिया। उनकी कविताओं में देशभक्ति, सामाजिक जागरूकता और मानवता के मुद्दे प्रमुख स्थान पर हैं। उनके काव्य संग्रह “हिमाद्रि के पुत्र”, “संचयिता”, और “स्मृति” बहुत प्रसिद्ध हैं। चतुर्वेदी ने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के लिए भी महत्वपूर्ण योगदान दिया और उनकी कविता “वन्दे मातरम्” और “माँ” आज भी लोकप्रिय हैं।

उनकी रचनाओं में भारतीय संस्कृति, देशभक्ति, और सामाजिक न्याय के प्रति गहरी संवेदना दिखाई देती है। माखनलाल चतुर्वेदी का निधन 30 जनवरी 1968 को हुआ। वे हिंदी साहित्य की अमूल्य धरोहर हैं और उनके योगदान को सदा याद किया जाएगा।

एक तुम हो -माखनलाल चतुर्वेदी

गगन पर दो सितारे हैं: एक तुम हो,
धरा पर दो चरण हैं: एक तुम हो,
‘त्रिवेणी’ के दो नदियाँ हैं! एक तुम हो,
हिमालय के दो शिखर हैं: एक तुम हो,
साक्षी रहा सिंधु लहराता,
भारत को धरा का बिंदु मानता।
कला की जोड़-सी ये जग की जटिलताएँ,
हृदय की होड़-सी दृढ़ वृत्तियाँ,
तिरंगे की तरंगों पर चढ़ते,
शत-शत ज्वार तुम्हारे पास आते।
घनश्याम की सौगंध है तुम्हें,
भारत-धाम की सौगंध है तुम्हें,
सेवा-ग्राम की सौगंध है तुम्हें,
आओ, उजड़ते जीवन को बचाओ।
तुम्हारी यातनाएँ और अणिमा,
तुम्हारी कल्पनाएँ और लघिमा,
तुम्हारी गगन-भेदी गूँज, गरिमा,
तुम्हारे बोल! भूमि की दिव्य महिमा,
तुम्हारी जीभ पर पैंरो की महिमा,
तुम्हारी अस्ति पर युग की निछावर।
मन-भेद को पार कर, अमर हो देश का कल का सबेरा,
कश्मीर, नेपाल, गोवा; जवाहर, विनोबा साक्षी,
प्रलय की आह युग है, वाह तुम हो,
जरा-सी किंतु लापरवाह तुम हो।
मैं अपने से डरती हूँ सखि,
पल-पल चढ़ते जाते हैं,
पद-आहट बिन, चुपचाप,
बिना बुलाए दिन आते हैं,
मास, वर्ष अपने-आप;
लोग कहें उम्र चढ़ी, पर मैं नित्य,
उतरती हूँ सखि!

भावार्थ:

यह कविता देशभक्ति और व्यक्तिगत संघर्ष की भावनाओं को व्यक्त करती है। कवि ने विभिन्न प्रतीकों के माध्यम से व्यक्त किया है कि एक व्यक्ति के जीवन और देश के लिए उसकी भूमिका कितनी महत्वपूर्ण है। गगन और धरा पर आधारित उपमाओं के जरिए कवि ने एक व्यक्ति की महानता और उसके कर्तव्यों को उजागर किया है। कविता में यह भावनाएँ व्यक्त की गई हैं कि व्यक्ति की सेवा और बलिदान देश के लिए अमूल्य हैं। कवि ने यह भी दर्शाया है कि जीवन की गति निरंतर होती है, और समय की चुनौती से निपटना आवश्यक है। इसके साथ ही, यह कवि की व्यक्तिगत भावनाओं और समय के साथ संघर्ष को भी व्यक्त करती है, जहां उम्र के चढ़ाव और जीवन के उतार-चढ़ाव को स्वीकार किया गया है।

मैं अपने से डरती हूँ सखि ! -माखनलाल चतुर्वेदी

मैं बढ़ रही हूँ, हाँ; हरि जानें,
यह मेरा अपराध नहीं है,
यौवन के रथ से उतर पड़ूँ,
ऐसी मेरी साधना नहीं है;
लोग कहें आँखें भर आईं,
मैं नयनों से झरती हूँ सखि!
मैं अपने से डरती हूँ सखि!

किसके पंखों पर जाती हैं
मेरी नन्हीं साँसें?
कौन छिपा जाता है मेरी
साँसों में अनगिनत उन साँसों को?
लोग कहें उन पर मरती है,
मैं उन्हें देखकर उभरती हूँ सखि!
मैं अपने से डरती हूँ सखि!

सूरज से बेदाग, चाँद से
अछूती, मंगल वेला,
खेला करें वही प्राणों में,
जो उस दिन प्राणों पर खेला,
लोग कहें आँखें डूबी,
मैं उन आँखों को तरती हूँ सखि!
मैं अपने से डरती हूँ सखि!

जब से बने प्राण के बंधन,
छूट गए गठबंधन रानी,
लिखने के पहले बन बैठी,
मैं ही उनकी प्रथम कहानी,
लोग कहें आँखें बहती हैं;
उनके चरण भिगोने आयें,
जिस दिन शैल-शिखिरियाँ उनको
रजत मुकुट पहनाने आयें,
लोग कहें, मैं चढ़ न सकूँगी,
बोझीली; प्रण करती हूँ सखि!
मैं नर्मदा बनी उनके,
प्राणों पर नित्य लहरती हूँ सखि!
मैं अपने से डरती हूँ सखि!

भावार्थ:

इस कविता में कवि ने अपने व्यक्तिगत भावनाओं और संघर्षों को व्यक्त किया है। वह अपने यौवन और जीवन के उतार-चढ़ाव से डरती है, लेकिन इसका कोई अपराध नहीं मानती। कवि के लिए, यह बढ़ती उम्र और जीवन की यात्रा एक चुनौती है, लेकिन वह इसे स्वीकार करती है। उसने अपनी सांसों और भावनाओं को चित्रित किया है, जो उसे अनगिनत चिंताओं और संघर्षों से जोड़ते हैं। कवि का मानना है कि वह अपने जीवन की कहानी खुद लिख रही है और इसे पूरी निष्ठा के साथ निभा रही है। शैल-शिखिरियाँ और नर्मदा का उदाहरण देकर, कवि ने अपनी संकल्पशीलता और देशभक्ति की भावना को व्यक्त किया है। कविता में आत्म-संघर्ष, कर्तव्य और सच्ची भावना की गहराई को दर्शाया गया है।

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला Suryakant Tripathi Nirala

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला (1899-1961) हिंदी साहित्य के प्रमुख कवि और साहित्यकार थे। उनका जन्म 21 फरवरी 1899 को उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के मोहनलालगंज गांव में हुआ था। निराला ने हिंदी कविता को आधुनिकता और नवीनता की दिशा में अग्रसर किया। उनकी कविताओं में सामाजिक असमानता, व्यक्तिगत दुःख और मानवता के गहरे मुद्दे झलकते हैं।

निराला की प्रमुख काव्य रचनाओं में “राम की शक्ति पूजा” और “अखिल भारतीय कवि सम्मेलन” शामिल हैं। उनकी कविताओं में क्रांतिकारी सोच, संवेदनशीलता, और समाज के प्रति गहरी चिंता प्रकट होती है। उनका साहित्य भारतीय कविता में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है और वे आधुनिक हिंदी कविता के महत्वपूर्ण स्तंभ माने जाते हैं। निराला की रचनाओं में जीवन की जटिलताओं और संघर्षों का सजीव चित्रण देखने को मिलता है।

बांधो न नाव इस ठांव बंधु -सूर्यकांत त्रिपाठी निराला

बांधो न नाव इस ठांव बंधु
पूछेगा सारा गांव बंधु
यह घाट वही जिस पर हंसकर
वह नहाती थी धंसकर
आंखें रह जाती थी फंसकर
कंपते थे दोनों पांव बंधु
बांधो न नाव इस ठांव बंधु
वह हंसी बहुत कुछ कहती थी
फिर भी अपने में रहती थी
सबकी सुनती थी सहती थी
देती थी सबके दांव बंधु
बांधो न नाव इस ठांव बंधु

भावार्थ:

यह कविता एक विशेष स्थान की भावनात्मक और व्यक्तिगत यादों को उजागर करती है। कवि की अपील है कि इस घाट पर नाव न बांधी जाए, क्योंकि यह स्थान एक महत्वपूर्ण और भावनात्मक यादों से जुड़ा है। कवि उस समय को याद करता है जब यहाँ एक महिला हंसते-हंसते स्नान करती थी, और उसकी हंसी में गहराई और भावनाएँ छिपी थीं। यह घाट उस महिला की यादों से भरा हुआ है, जो सबकी बातें सुनती और सहती थी, और सभी को अपनी स्नेहपूर्ण उपस्थिति देती थी। कविता का केंद्र भावनात्मक संबंध और यादों की संजीवनी शक्ति है, जो इस स्थल को खास बनाती है।

जयशंकर प्रसाद (Jay Shankar Prasad)

जयशंकर प्रसाद (1889-1937) हिंदी साहित्य के महान कवि, नाटककार, और निबंधकार थे। उनका जन्म काशी (वाराणसी) में हुआ था। हिंदी साहित्य में उन्हें ‘छायावादी’ काव्यधारा का प्रमुख कवि माना जाता है। उनके काव्य और नाटकों में भारतीय संस्कृति, दर्शन, और पुरानी परंपराओं का गहरा प्रभाव दिखता है।

प्रसादजी का काव्य संसार प्रेम, आदर्श, और नैतिकता की ऊंचाईयों को छूता है। उनकी कविताओं में उनके गहन आत्मसंवाद और स्वाभाविक संवेदनाओं की झलक मिलती है। उनकी प्रमुख काव्य रचनाओं में ‘कनक दीक्षित’, ‘झरना’, ‘आंसू’, और ‘सपना’ शामिल हैं। नाटकों में ‘चंद्रगुप्त’, ‘मधुशाला’, और ‘कर्णकुंवर’ उनके प्रसिद्ध नाटक हैं।

प्रसादजी ने हिंदी साहित्य को एक नया दृष्टिकोण और गहराई प्रदान की। उनकी काव्य रचनाएं आज भी हिंदी साहित्य के महत्वपूर्ण हिस्से के रूप में मानी जाती हैं और उनके योगदान को भारतीय साहित्यिक इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है।

अब जागो जीवन के प्रभात -जयशंकर प्रसाद

अब जागो, जीवन के नए सवेरे में!
वसुधा पर बिखरे हैं ओस के मोती,
हिमकन के आँसू जो भर रहे हैं क्षोभ,
ऊषा अरुण रंग में रंग रही है, सुनो!

अब जागो, जीवन के नए सवेरे में!
तम की रात्रि की चमकती तारे,
अब मुरझा रहे हैं किरणों के दल में,
सुखद हवा चल रही है, ये सुनो!

रात की लाज को समेटो,
सूरज की किरणों से मिलो,
अरुणांचल में हो रही बात,
अब जागो, जीवन के नए सवेरे में!

भावार्थ:

यह कविता जीवन के नये आरंभ और उजाले के आगमन की ओर इशारा करती है। कवि यह संदेश देते हैं कि अंधकार और रात की समाप्ति हो चुकी है, और अब नये सवेरे का स्वागत करने का समय है। वसुंधरा पर बिखरे ओस के मोती और हिमकन के आँसू, जो क्षोभ को प्रकट करते हैं, अब सुबह की हल्की रोशनी में बदल चुके हैं। कवि रात्रि की लाज को समेटने की बात करते हैं और सूरज की किरणों से मिलकर नए दिन का स्वागत करने की प्रेरणा देते हैं। कविता में एक सकारात्मक संदेश है कि अब समय आ गया है कि हम अपने जीवन की नई शुरुआत करें और उजाले का स्वागत करें।

उस दिन जब जीवन के पथ में- जयशंकर प्रसाद

उस दिन जब जीवन की राह में,
मैं एक कटोरा लेकर कांपते कदमों से,
मधु की भीख मांगते हुए,
इस अनजान नगर में पहुंचा था
एक गरीब भिक्षु बनकर।
उस दिन जब जीवन की राह में,
लोगों की आंखें मेरे लिए चमक उठीं,
वे खुद कुछ देने को तत्पर हो गए,
मधु की धारा बहती रही,
सभी ने अपना संचित धन दे दिया।
उस दिन जब जीवन की राह में,
फूलों ने अपनी पंखुरियाँ खोल दीं,
आंखें ठिठोली करने लगीं,
हृदय ने झोली फैला दी,
मन विकल और पागल हो उठा।
उस दिन जब जीवन की राह में,
कटोरे में भरने लगा मधु,
जो कभी खत्म नहीं होता था,
मैं खुद हैरान रह गया,
इतना सुंदर मधुबन कहां छिपा था!
उस दिन जब जीवन की राह में,
मधु-उत्सव की वर्षा हुई,
कांटे भी मोती बन गए,
जिसे आशा रोते हुए बटोर रही थी,
समझ आ गया, यही मेरा धन है।

भावार्थ:

यह कविता जीवन की कठिनाइयों और उसके अनपेक्षित सुखों की सुंदर चित्रण है। कवि एक दिन की घटना का वर्णन करते हैं जब वे एक भिक्षु के रूप में एक नए नगर में पहुंचे। लोग उनकी मदद के लिए आगे आए और अपनी संपत्ति को दान कर दिया। फूलों और प्रकृति ने भी इस दिन को खास बना दिया। अंत में, कवि को यह एहसास होता है कि जीवन की कठिनाइयों और चुनौतियों के बावजूद, वह एक अमूल्य धन प्राप्त कर चुके हैं, जो आशा और संतोष का प्रतीक है। यह कविता जीवन के संघर्षों के बावजूद मिलने वाले अनमोल सुखों की सुंदरता को दर्शाती है।

नरेंद्र वर्मा की Poem

कोने में बैठ कर क्यों रोता है,
यू चुप चुप सा क्यों रहता है।
आगे बढ़ने से क्यों डरता है,
सपनों को बुनने से क्यों डरता है।

तकदीर को क्यों रोता है,
मेहनत से क्यों डरता है।
झूठे लोगों से क्यों डरता है,
कुछ खोने के डर से क्यों बैठा है।

हाथ नहीं होते, नसीब होते हैं उनके भी,
तू मुट्ठी में बंद लकीरों को लेकर रोता है।
भानू भी करता है नित नई शुरुआत,
सांझ होने के भय से नहीं डरता है।

मुसीबतों को देख कर क्यों डरता है,
तू लड़ने से क्यों पीछे हटता है।
किसने तुमको रोका है,
तुम्हीं ने तुमको रोका है।

भर साहस और दम, बढ़ा कदम,
अब इससे अच्छा कोई न मौका है।

नरेंद्र वर्मा की मोटिवेशनल Poem

तुम मन की आवाज सुनो,
जिंदा हो, ना शमशान बनो,
पीछे नहीं, आगे देखो,
नई शुरुआत करो।

मंजिल नहीं, कर्म बदलो,
कुछ समझ न आए,
तो गुरु का ध्यान करो,
तुम मन की आवाज सुनो।

लहरों की तरह किनारों से टकराकर,
मत लौट जाना फिर से सागर,
साहस में दम भरो फिर से,
तुम मन की आवाज सुनो।

सपनों को देखकर आंखें बंद मत करो,
कुछ काम करो,
सपनों को साकार करो,
तुम मन की आवाज सुनो।

इम्तिहान होगा हर मोड़ पर,
हार कर मत बैठ जाना किसी मोड़ पर,
तकदीर बदल जाएगी अगले मोड़ पर,
तुम अपने मन की आवाज सुनो।

जीवन जीने की प्रेरणा देने वाली कविता

जीवन के सफर की यह अनूठी राह है,
हर मोड़ पर एक नई चुनौतियों की चाह है।
हर सुबह नई आशाओं की किरण लाती,
हर शाम संघर्ष की कड़ी का फल देती।

सपनों की ऊँचाई तक पहुंचना है हमें,
सपनों को हकीकत में बदलना है हमें।
हर कठिनाई, हर विघ्न, हर समस्या को पार करें,
उत्साह और साहस से अपने पथ पर चलें।

जीवन की राह में होंगे कठिन मोड़ कई,
मगर इरादों की मजबूती से न कभी हटें।
हार के डर को पीछे छोड़ दें,
सफलता की ओर कदम बढ़ाते चलें।

हर दिन एक नई शुरुआत का संकेत है,
संघर्ष की कड़ी में ही सफलता की बुनियाद है।
जीवन को खुशी और उत्साह से जीएं,
अपने सपनों की ऊँचाइयों को छूने का विश्वास रखें।

UPSC Motivational Poem in Hindi

सपनों की उड़ान भरने का वक्त आया है,
सपनों को हकीकत में बदलने का वक्त आया है।
संघर्ष की राह पर कदम बढ़ाते चलो,
हर चुनौती को जीतकर आगे बढ़ते चलो।

जो भी संकल्प मन में ठान लिया है,
उस लक्ष्य को पाने की कोशिश जारी रखो।
सपनों की इस ऊँचाई को छूने का अरमान,
हर दिन खुद को बेहतर बनाने का संकल्प।

सपनों की राह में आएं कितनी भी बाधाएं,
हर कठिनाई को पार करके नई शुरुआत हो।
विफलताओं से न घबराओ, आत्म-विश्वास बढ़ाओ,
अपने लक्ष्य को पाने की जिद्द बनाए रखो।

सपनों को हकीकत में बदलने का ये सफर,
धैर्य और मेहनत का अनमोल परिदृश्य है।
सपनों की उड़ान को पूरा करने का ये संकल्प,
उत्साह और मेहनत से पूर्ण होगा हर कल्प।

आशा है कि आपको यह ब्लॉग “Motivational Poem in Hindi” पसंद आया होगा। यदि आप कोट्स पर और ब्लॉग्स पढ़ना चाहते हैं, तो iaspaper के साथ जुड़े रहें।

Leave a Comment

आपका ईमेल पता प्रकाशित नहीं किया जाएगा. आवश्यक फ़ील्ड चिह्नित हैं *

Scroll to Top